गुरुकुल से लेकर मठ हों या फिर मदरसे से लेकर चर्च हों शिक्षा के नाम पर चलने वाली काफ़ी धार्मिक संस्थाओं में समय-ब-समय इस तरह के मामले सामने आते रहे हैं। इस कोण से देखने पर ज़रूर “सर्वधर्म समभाव” की उक्ति सटीक बैठती है क्योंकि क़रीबन सभी धर्मों से जुड़ी तमाम संस्थाओं में ज़्यादतियाँ प्रकाश में आती रहती हैं! माता-पिता और अभिभावक सोचते हैं कि हमारे बच्चे यहाँ संस्कारों का पाठ पढ़कर आयेंगे परन्तु बहुतों को यहाँ ऐसे घाव मिलते हैं जो पूरी ज़िन्दगी नासूर की तरह रिसते रहते हैं।
पूरे देश में बच्चियों की आर्तनाद नहीं, बल्कि धधकती हुई पुकार सुनो!
यदि हम सब चुप बैठ गए और इन घटनाओं के आदी बनते गए तो हम ज़िन्दा मुर्दों के अलावा कुछ भी नहीं! हमें संगठित होना होगा क्योंकि हमारे घरों में भी बच्चियाँ हैं और सबसे बड़ी बात ये है कि हम इंसान हैं। हमें हर घटना के खिलाफ़ सड़कों पर उतरना होगा और साथ ही इस पूँजीवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की कब्र खोदने के लिए एक लम्बे युद्ध का ऐलान करना होगा, जो इन सारे अपराधों की जड़ है। हमें इन बच्चियों की धधकती पुकार सुननी होगी और पूँजी-सत्ता-पितृसत्ता के गँठजोड़ को जनएकजुटता के दम पर ध्वस्त कर देना होगा। अगर आज हम उठ खड़े नहीं होते तो न जाने कितनी ही बच्चियों के साथ होने वाले इस अमानवीय अपराध के गुनाहगार हम भी होंगे! दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा और स्त्री मुक्ति लीग आपको इस संघर्ष में हमसफर बनने के आवाज़ दे रहा है।
शहीद उधम सिंह अमर रहें !
उधम सिंह हिन्दू, मुस्लिम और सिख जनता की एकता के कड़े हिमायती थे इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘मोहम्मद सिंह आज़ाद’ रख लिया था। वे इसी नाम से पत्रव्यवहार किया करते थे और यही नाम उन्होंने अपने हाथ पर भी गुदवा लिया था। उन्होंने वसीयत की थी कि फाँसी के बाद उनकी अस्थियों को तीनों धर्मों के लोगों को सोंपा जाये। अंग्रजों ने इस जांबाज को 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर लटका दिया। सन् 1974 में उधम सिंह की अस्थियों को भारत लाया गया और उनकी जैसी इच्छा थी उसी के अनुसार उन्हें हिन्दू, मुस्लिम और सिख समुदायों के प्रतिनिधियों को सौंप दिया गया। हिन्दुओं ने अस्थि विसर्जन हरिद्वार में किया, मुसलमानों ने फतेहगढ़ मस्ज़िद में अन्तिम क्रिया की और सिखों ने करन्त साहिब में अन्त्येष्टि क्रिया संपन्न की।
भगतसिंह के साथी क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त के साथ आजाद भारत में हुआ सलूक
भगत सिंह को फांसी हुई लेकिन बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास के लिए काले पानी भेजा गया। दत्त चाहते तो सावरकर की तरह माफी मांग कर वीर बन सकते थे। लेकिन नहीं। उन्होंने एक सच्चे क्रांतिकारी की तरह कभी माफी नहीं मांगी। वहां से जब वह छूट कर आये तो उनका संगठन खत्म हो चुका था। वह खुद टीबी के शिकार हो गए थे। लेकिन देश की आज़ादी की भावना उनके मन से खत्म नहीं हुई थी।
कोई नहीं बचेगा!
पिछले 4 सालों में जो सवा दो करोड़ लोग बेरोजगार हुए हैं उनमें से कितने हिन्दू थे और कितने मुसलमान थे क्या इसका हिसाब किसी ने लगाया है? कितने सवर्ण थे और कितने दलित थे? क्या नौकरी से निकालते हुए किसी ने जात धर्म पूछा था? नोटबंदी में जिन 200 लोगों की मौत हुयी उनमें से कितने हिन्दू थे और कितने मुसलमान थे? कितने सवर्ण थे और कितने दलित थे? क्या नोटबंदी के कारण हुयी मौतों ने जात धर्म पूछा था? जीएसटी लागू होने के बाद जितने उद्योग बर्बाद हुए और इसके कारण जितने लोग सड़कों पर चप्पल फटकारने को मजबूर हुए उनमें कितने हिन्दू थे? मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण जो देश में बर्बादी फैली है उसने हिन्दू मुसलमान के आधार पर फर्क नहीं किया है! पर जब वोट लेने की बारी आती है तो हमें हिन्दू मुसलमान में बाँट दिया जाता है।
गदर पार्टी के नायक शहीद करतार सिंह सराभा के 122 वें जन्ममदिवस (24 मई, 1896) के अवसर पर
करतार सिंह सराभा और उन जैसे न जाने कितने नौजवान देश की आज़ादी के लिए हँसते–हँसते फांसी के फन्दों पर झूल गये। अंग्रेजों को तो जनबल से डरकर भागना पड़ा किन्तु देश से भागते समय वे सत्ता की बागडोर अपने देसी भाई–बन्धुओं को सौंप गये। इन देसी हुक्मरानों ने जनता को जी भरकर निचोड़ा है और आज़ादी के बाद मिले तमाम हक–अधिकार लगातार या तो छीने जाते रहे हैं या बस काग़जों की शोभा बढ़ा रहे हैं। 71 वर्षों की आधी–अधूरी आज़ादी चीख़–चीख़कर बता रही है कि यह शहीदों के सपनों की आज़ादी कत्तई नहीं है।
पर्चा – हत्यारी वेदान्ता! हत्यारा विकास!! तूतीकोरिन की घटना हमारे मानवीय अस्तित्व को चुनौती है!
ये विकास नहीं पूँजीपतियों द्वारा धरती पर मानवजीवन का विनाश है। ये लुटेरों के वर्ग द्वारा अतीत में किये गये अपराधों में सबसे भयानक ऐतिहासिक अपराध है। अगर हम इस पूँजीवादी व्यवस्था को इतिहास के कब्र में दफनाने के लिए मैदान में नहीं उतर पड़ते तो हम भी इस अपराध में भागीदार होंगे।
गाजा में बेगुनाहों के कत्लेआम का विरोध करो
फिलिस्तीन के एक हिस्से गाज़ा पट्टी की सीमा पर कल इजरायली सैनिकों ने 60 से ज्यादा मासूम नागरिकों की गोली मारकर हत्या कर दी। सारी दुनिया के साम्राज्यवादी चुपचाप इस जनसंहार को देख रहे हैं। साम्राज्यवादी मीडिया इज़रायल के इस नंगे झूठ का भोंपू बना हुआ है कि उसने यह हमला फिलिस्तीनियों को सीमा में घुसने से रोकने के लिए किया है।
बलात्कारियों के समर्थन में प्रदर्शन, न्याय की नयी संघी, भाजपाई परिभाषा
भाजपा एक ऐसी पार्टी के रूप में उभरी है जिसमें सभी पार्टियों के गुण्डे, मवाली, हत्यारे और बलात्कारी आकर शरण प्राप्त कर रहे हैं। इस देश के प्रधान सेवक उर्फ़ चौकीदार ने हाल ही में सीना फुलाते हुए कहा था कि कमल का फूल पूरे देश में फैल रहा है, लेकिन वे यह बताना भूल गये कि दरअसल यह फूल औरतों, दलितों, अल्पसंख्यकों और मजदूरों के खून से सींचा जा रहा है। एक तरफ भयंकर बेरोजगारी और दूसरी तरफ ऐसी घटनाएँ दिखाती हैं कि पूरे देश में फासीवाद का अँधेरा गहराता जा रहा है। गो-रक्षा, लव-जिहाद, ‘भारत माता की जय’, राम मंदिर की फ़ासीवादी राजनीति सिर्फ़ और सिर्फ़ आम जनता को बाँटने और आपस में लड़ाने के लिए खेली जाती है। भारत माता की रक्षा करने का दम्भ भरते हुए ये फ़ासीवादी उन्माद मचाते हुए देश की असली माताओं-बहनों के साथ कुकर्म कर रहे हैं। उनके देश की परिभाषा बस कागज़ पर बना एक नक्शा है। बढ़ते निरंकुश स्त्री-विरोधी अपराधों से यह ज़ाहिर हो जाता है कि संघियों की देश की परिभाषा में महिलाओं के लिए स्थान सिर्फ और सिर्फ एक भोग्य वस्तु का है।
देश की जनता के नाम एक ज़रूरी अपील – दंगों की राजनीति और मजहबी जुनून का विरोध करो!
तमाम तरह की फ़िरकापरस्त और साम्प्रदायिक ताकतों को तभी हराया जा सकता है जब लोगों को उनके जीवन से जुड़े असली सवालों के आधार पर एकजुट किया जाये। शहीदे आज़म भगतसिंह के कहे अनुसार देश की युवा आबादी को न केवल स्वयं जागरूक और संगठित होना होगा बल्कि आम जनता को भी यह बताना होगा कि उनके असली दुश्मन कौन हैं। मौजूदा साम्प्रदायिक हमले के ख़िलाफ़ जनसाधारण को सचेत और लामबद्ध करना आज वक्त की ज़रूरत है।